मंगलवार, 26 जुलाई 2011


सुबोध कांत सहाय बनाम संपादकवीर जी

डॉ0 सुनील कमल

पत्रकारिता यदि स्वस्थ्य हो तो समाज का माहौल भी स्वस्थ्य होगा। जिम्मेदार और  मुद्दे की पत्रकारिता ही समाज और राष्ट्र के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाती है।  और अपना चरित्रा भी उज्ज्वल बनाए रखती है। पत्रकारिता के इसी चरित्र-बल पर तो स्वतंत्रता पूर्व स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी की आधी जंग जीत ली थी।  तब पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी और आज व्यवसाय।जिसके कारण पत्रकारिता आज पूँजीपतियों का हथियार बन गयी है। या यों कहें पूंजीपतियों ने इसे ऐसा बना लिया है। पत्रकारिता अब पूंजीपतियों की बपौती बन कर रह गयी है और इसमें काम करने वाले तो हमारे बीच के ही लोग होते हैं, जो सिर्फ नौकरी करते हैं पूँजीपतियों के अखबारों में, और ये पूँजीपति के ये संपादक-प्रबंधक उनकी मजबूरी का फायदा अपने मालिक के पक्ष में उठाते हैं।  
आज पत्रकारिता दुर्भाग्यजनक स्थिति में पहुँच गयी है कि कॉरपोरेट मीडिया के संचालकगण पत्रकार-कामगरों का इस्तेमाल जैसे चाहते हैं, वैसे करते हैं। ऐसी स्थिति पैदा करने में नौकरी करने वाले पत्रकारों की भी  भूमिका कम नही है। और सरकार में बैठे स्वार्थी संबंधत अधिकारी के साथ-साथ भ्रष्ट नेताओं की भूमिका भी कमतर नहीं है।
आज कॉर्पोरेट मीडिया सरकार को गिराने और बनाने की ताकत हासिल कर लिया है। जो आने वाले समय के लिए भारी खतरा का संकेत देती है। फिर भी सरकार इस बात से जानबूझ कर आँखे मूँदे बैठी है। और इनके अखबारों द्वारा किये जा रहे सारे कुकर्मों को नजरअंदाज करते हुए सँबधित अधिकारियोँ के मीलीभगत से इन्हें सरकारी संरक्षण  दिया जा रहा है। कई बड़े कार्पोरेट अखबार आज कई शहर में फर्जी रूप से चल रहे हैं, इसकी खबर भी आ चुकी है। फिर भी उन्हें सरकारी विज्ञापन लाखों करोड़ो का दिया जाता है।  राँची शहर में भी फर्जी अखबार का प्रकाशन किया जा रहा है। उन्हें सरकारी विज्ञापन दिया जा रहा है। सरकार और सरकारी अफसर का भरपूर संरक्षण भी इन्हें मिल रहा है। ऐसे अखबार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और मानव की गरिमा को क्या समझेगा! चरित्रहनन की पत्रकारिता ही इनका धारदार हथियार बन कर रह गयी है, जिसके बल पर उनकी पूँजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है। राँची के एक अखबार तो अपना प्रिन्टलाइन को इस प्रकार से छुपाता हुआ छापता है, जैसे कि कोई उसकी चोरी कही पकड़ न ले। वहीं अपने पंजीयन संख्या की जगह पंजीयन क्रमाँक आवेदित लिखता है, जो प्रेस एक्ट के विरूद्ध है, गैर कानूनी है। इस प्रकार के कोई प्रावधान नही है कि आप आवेदित रूप में अखबार का प्रकाशन जारी रखें, उपायुक्त और एसडीएम को गैरजिम्मेदारी के काम से फुर्सत ही नहीं कि इस प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण कानून की रक्षा के लिए समय निकाले। जिसका फायदा ये फर्जी अखबार उठाकर लाखों रूपये का सरकारी विज्ञापन अधिकारियों के पॉकेट गर्म करते हुए उठा रहा है। 
प्रसंगवश कहना पड़ रहा है कि पिछले दिनों दिल्ली में पूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता अशोक प्रधान द्वारा होटल ग्रैंड में फैशन शो का आयोजन किया गया था। इसमें केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय मुख्य अतिथि थे, उपलब्ध जानकारी के अनुसार जिस वक्त फैशन शो आयोजित किया जा रहा था, ठीक उसी वक्त मुम्बई में बम के धमाके हुए। इस घटना के बाद कार्पोरेट घराने के कुछ गैर जिम्मेदार पत्रकारों ने केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय को इस कार्यक्र में घेरते हुए पत्रकारिता का नया एंगल तलाशा और उन पर हमला बोल दिया, जैसे कि उनके ही कारण मुम्बई में आंतकी हमला हुआ हो। और तो और फैशन शो में रैंप पर कैटवाक करते हुए महिला मॉडल की अधनँगी टाँग एवं सुबोध कान्त सहाय को ठीक उसके करीब गोल घेरे में दिखाते हुए मुख्य पृष्ठ पर और प्रमुखता से उस तस्वीर को प्रकाशित कर कार्पोरेट मीडिया क्या साबित करना चाहते थे, यह किसी संवेदनशील जागरूक, जिम्मेदार लोगों को निश्चित रूप से असमंजस में डालने वाला हो सकता है। यहाँ कई पूर्वाग्रह से ग्रसित पाठक को यह लग सकता है कि हम सुबोध कांत सहाय का बचाव कर रहे हैं, जैसा कि दृष्टिपात के वेबसाइट एवं फैसबुक  पर इस समाचार के प्रकाशन के पश्चात कई पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया इसी आशय का दिया है। यहाँ हम यह कहना चाहते हैं कि इस गजह पर मेरे घोर विरोधी भी होता तो मैं उसका पक्ष ही लेता, क्यों कि इस समाचार से किसी खास व्यक्ति को जलिल करने जैसी बात हुई है।  जो मानव की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा ही लगता है। दूसरी और यहाँ याद दिलाने की जरूरत है कि उक्त फैशन शो का आयोजन एक पूर्व मंत्री ने किया था, तो क्या इस मामले में उन्हें इन अखबारों ने दोषी क्यों नहीं ठहराया? उनके बारे में किसी अखबार के संपादकवीर की ओर से एक लाइन की खबर चलाने की शऊर क्यो नहीं हुआ? यह तो एक इत्तेफाक था, जिसे कोई नहीं जानता था कि इसी समय यह सब होगा। इसमें कोई दोषी नहीं है। इसमें दोषी है तो सिर्फ और सिर्फ क्षुद्रता भरी पत्रकारिता का एंगल तलाशने वाला कारोपोरेट संवाददाता एवं संपादकवीर। 
ऐसी क्षुद्रता भरी पत्रकारिता से एक प्रश्न उभर कर सामने आता है कि अखबार के इतने महत्वपूर्ण स्थान का जिस प्रकार दुरूपयोग किया गया, इससे तो अखबार के साथ-साथ संपादक की क्षुद्र मानसिकता ही झलकती हैै। इतने महत्वपूर्ण जगह को यदि झारखण्ड के गाँव या शहर के गरीब-लाचार लोगों की लाचारगी के लिए किया जाता, तो कितने लाचार लोगों की जिन्दगी सँवर जाती, लेकिन नहीं, ये ऐसा नहीं कर सकते, क्योकि ये लोग तो पूंजीपतियों के लाचार नौकर हैं, जो सिर्फ अपना पेट भरने के लिए एक मशीन की तरह काम करते हैं। जिम्मेदार पत्रकारिता के महत्व को  ये क्या समझेंगे! ये तो घिनौने विज्ञापन को छाप कर समाज के संस्कार को बिगाड़ सकते हैं, अपत्तिजनक विज्ञापन में उन्हें खोट नजर नहीं आयेगी। इन्हें ऐसे विज्ञापन घिनौने नहीं लगते। उन्हें अपने गिरेवान में झाकने में शर्म आती दूसरे के गिरेवान में झाकने में आनन्द। इन्हें सेक्स पावर और लिंगवर्धक् जैसे विज्ञापन घिनौने नहीं लगते और पत्र-मित्रता के नाम पर हजारों किशोरों-नौजवानों को गुमराह करने वाले फ्रॉड विज्ञापन पर निगाहें नहीं जातीं। इन विज्ञापन को छापने में गर्व अनुभव करते हैं। ऐसे फ्रॉड विज्ञापन के प्रकाशन पर एक शब्द नहीं लिखेंगे। गर्व से प्रकाशित करेंगे, समाज भाँड़ में जाये, इनके पूंजीपति मालिक को पैसे तो मिलेंगे, उस काली कमाई से इनका भी पेट भरेगा, फिर क्यों उसमें ताक-झांक करने जायेंगे, ये संपादकवीर जी? संपादकवीर जी आप के अखबार में कई तकनीकी छेद हैं, आपको वह दिखाई देती क्यों नहीं? आप पाठक बनाने के बहाने लोगों को लालची बना रहे हैं घटिया गिफ्ट देकर। संपादकवीर जी इसमें आपको पत्रकारित का एंगल नजर नहीं आता। क्या अखबार का काम गिफ्ट बाँटना भी हो गया है। आप तो बाजार लगाते ही हैं। कभी फैशन शो का तो कभी कार बाजार, तो कभी .....आदि आदि! क्या यह पत्रकारिता के विरूद्ध  कर्म नहीं है? संपादकवीर जी!
संपादकवीर जी जनता को आप बता पायेंगे कि सुबोध कांत सहाय फैशन शो में आकर कौन सा गुनाह कर दिया था। आपको मालूम हो कि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे तो कैटवाक में हिस्सा भी लिया करती थीं। नामी-गिरामी राजनेता, क्रिकेटर, प्रसिद्ध खिलाड़ी अन्य ऐसे व्यक्तित्व फैशन शो में नियमित शिरकत करते रहे हैं। 
यह तो इत्तेफाक था कि ऐन वक्त पर ही मुम्बई में आंतकी धमाका हो गया। यह इत्तेफाक तो किसी के साथ भी हो सकता है... सुबोध कांत सहाय ने मुम्बई के आतंकी धमाके की घटना को न्योता तो नहीं दिया था। घटना के बाद उन्होंने सिर्फ नियति की बात कह कर अफसोस जाहिर की थी। उनके परिवार भी तो मुम्बई में ही था। संपादकवीर जी! यदि उस जगह पर आप होते तो क्या करते। आप यहाँ भी क्या करते हैं! सब जानता है। 

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