सोमवार, 22 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार का पाखण्ड पर्व



क्या यह कहना गलत होगा कि अन्ना द्वारा चालए जा रहे भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम (आन्दोलन) में वैचारिकता की कमी और भावनात्मकता की बहुलता है। स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद जितने भी छोटे-मोटे आन्दोलन हुए, उसपर हम नजरपात करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे आन्दोलन अपने मूल उद्देश्य से भटके हुए और असफल सिद्ध् हुए। जेपी आन्दोलन भी उनमें से एक बड़ा आन्दोलन रहा। जो बेनतीजा और बेजान साबित हुआ।  आखिर क्यों? इस पर गहन मंथन करने की जरूरत है। लेकिन हमारे देश में वैचारिक चरित्र की कमी है। जिसके चलते इस पर ईमानदार मंथन नहीं हो पाता। जेपी आन्दोलन से उपजे, कई नेताओं के चेहरे आज सामने है, उनमें से कई नेता ऐन-केन-प्रकारेण कुर्सी हासिल कर लोकप्रिय भी हुए, लेकिन लोकमान्य नहीं बन पाए 
आज अन्ना के साथ कई ऐसे चेहरे भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम में शामिल हैं, जिनका चरित्र और चाल लोकमान्य की शर्त को दूर-दूर तक भी नहीं छूता। 
देश में भारतीय दण्ड विधान के तहत कानून बने हुए हैं, जिन्हें ईमानदारी से लागू किया गया होता तो हत्या, बलात्कार, ठगी, राहजनी, अमानत में खयानत और तरह-तरह के अत्याचार और अपराध समाज और राष्ट्र के जीवन से कब के समाप्त हो गये होते। अब तो ऐसी स्थिति बन गयी है कि जितने महकमे बनते हैं, उतने ही भ्रष्टाचार के कारखानों में इजाफा होता जाता है। सूचना के अधिकार कानून बने, लागू हुए। जिन व्यक्तियों को इसकी जिम्मेदारी दी गयी, वे सबके सब सस्ते में बिकाऊ साबित हुए। क्या पत्रकार क्या अधिकारी! सभी वही ढाक के तीन पात!
अब, यहाँ एक अहम सवाल है कि क्या लोपपाल विधेयक के आ जाने से भ्रष्टाचार जादू की तरह व्यक्ति और समाज के चरित्र से समाप्त हो जायेगा? नहीं समाप्त होगा। इसके लिए तो हमें ऐसा कुछ ईजाद करने की जरूरत है, जो सुबह-सुबह उठते ही हमें सीरींज में डाल कर अपने शरीर में प्रवेश कराना होगा, ताकि दिन भर भ्रष्टाचार के कीडे़ जगे नहीं, सोये हुए रहे। तभी कुछ संभव है कि भ्रष्टाचार हमारे जीवन से समाप्त हो पाये। अन्यथा भ्रष्टाचार का पाखंडपर्व हम जीवन भर मनाते रहेंगे भ्रष्टाचार के साथ। और अन्ना की मुहिम में वैसे ही व्यक्ति और चरित्र अगुआ बना हुआ रहेगा, जो वेतन को न छूकर ऊपरी आमदनी से अपना सारा खर्च गर्व से चलाता है। और ऐसी मुहिम का प्रायोजक भी वही व्यक्ति होता है, जो सबसे पहले बैनर और झण्डा लेकर चौक-चौराहों पर देखा जाता है। 
आजादी के 65 वर्ष हो गये। लेकिन हमारे देश की असली तस्वीर क्या है? जिनके लिए योजना बनाई जाती है, उन्हें उसका लाभ न मिल कर ऊपर-ऊपर ही या नीचे-नीचे ही उनकी तिजोरी में चला जाता है, जो इस योजना को लागू करते हैं। नेता-कारपोरेट मीडिया-और भ्रष्ट अधिकारी का गठबंधन इस आजादी को लिल रहा है। जो आने वाले समय में और खतरनाक साबित होगा। तब कोई अन्ना कुछ नहीं कर पायेगा! 
अरुण कुमार झा
प्रधान सम्पादक

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