मंगलवार, 3 जनवरी 2012


असली नेता की प्रतीक्षा में है झारखण्ड


अरुण कुमार झा 

ranchi drishtipat dece 11
पथ भ्रष्ट झारखंड की राजनीति के छः धुरन्धरॊ मधु कोड़ा, कमलेश सिंह, भानु प्रताप शाही, एनोस एक्का एवं हरिनारायण राय की दुर्दशा देखकर झारखंड के आम आदमी अपने को झारखंडी कहने में लज्जित होता है। लेकिन वहीं दिशाहीन झारखंड के नेताओं को इसकी कोई ग्लानि नहीं है।  भारत में कोई दूसरा प्रान्त नहीं है, जहाँ छः पूर्व मंत्राी एक साथ जेल में जीवन बीता रहे हों। मधु कोड़ा का तो कई रिकार्ड जग जाहिर है। एक रिकार्ड यह भी है कि पूरी दुनिया में मधु कोड़ा ही है, जिस पर निगरानी, सीबीआई, आईटी और इडी का एक साथ मुकदमा चल रहा है। यह सब दुर्भाग्य झारखंड को विरासत में मिला है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ये छः पूर्व मंत्री ही पथभ्रष्ट और चोर हैं, ये तो पकड़ में आ गये। जो पकड़ में नहीं आये हैं, वो साधु हैं, ऐसा नहीं है। वर्तमान मंत्रिमंडल में एक महत्वपूर्ण विभाग के महत्वपूर्ण आदिवासी मंत्री तो जमीन के आकर्षण में इतने आसक्त हैं कि इन्हें कानून और अपने पद की गरिमा का ख्याल भी नहीं रहा। ये मर्यादाविहीन राजनेता स्वार्थ और लालच के दलदल में इतने गहरे उतरे हुए हैं कि इन्हें भला-बुरा की मर्यादा भी नहीं सूझती। झारखंड में ऐसे दर्जनों भ्रष्ट आचरण के नेता हैं, जो वर्तमान में प्रदेश की रहनुमाई में लगे हुए हैं। उसी प्रकार दर्जनों भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं, जो डा0 प्रदीप कुमार की राह पर ही चल रहे हैं। यहाँ यह कहने में हमें जरा भी संकोच नहीं होता कि नेता-अधिकारी के साथ-साथ कई घाघ मीडियाकर्मी भी भ्रष्टाचार के पोषण में दिन रात लगे हुए हैं। झारखंड का जिस दिन सौभाग्य जगेगा, उस दिन ये सारे नेता और अधिकारी और मीडिया वाले भी जेल में जीवन बीता रहे होंगे। लेकिन इसके लिए जरूरत है, निष्पक्ष और स्वच्छ जाँच एंजेसी की, जो ईमानदारी पूर्वक इनकी भ्रष्ट गतिविधियों की जाँच करे। 
झारखंड के उदय के साथ ही इस प्रदेश को लूटखण्ड के रूप में बदल दिया गया। एक तरफ झारखंड विधनसभा का प्रथम अध्यक्ष इंदर सिंह नामधरी, तो दूसरी तरफ मंत्रिमंडल के मुखिया बाबूलाल मराण्डी, दोनों ने मिल कर अपने अपने महकमे में भ्रष्टाचार की ऐसी खेती की, भष्टाचार का ऐसा रक्त-बीज बोया, जो अब तक, अपना जलवा दूर-दूर तक दिखला रहा है, ऐसा कोई दूसरा उदाहरण इस देश में नहीं है।
‘स्वार्थ और लालच’ झारखंड की राजनीति का एक अहम हिस्सा बन गया है। यही स्वार्थ और लालच झारखंड के माननीयों को कर्तव्यच्युत और पथभ्रष्ट कर रहा है। झारखंड की 85 प्रतिशत जनता को दोनो समय का भरपेट भोजन और तन पर पूरा कपड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन माननीय जी को विलासिता की सारी सुविधएँ चाहिए। मानो झारखंड इन्हीं के लिए वरदान स्वरूप बना है। जनता के खून पसीने की कमाई पर इनका सनातन हक कायम हो गया है, ये जैसे चाहें, खजाने का उपभोग करते हैं। यह सब तब तक चल रहा है, जब तक कि झारखंड को कोई नेता नहीं मिला है, जिस दिन झारखंड को असली नेता मिल जायेगा, हमें इसकी आशा करनी चाहिए, उसी दिन झारखंड का असली उदय होगा। 

शनिवार, 27 अगस्त 2011


इस नग्नता पर नारी संगठनों को लज्जा क्यों नहीं आती !


" अन्ना हजारे जी को सपोर्ट केबहाने टोपलेश होनेवाली अभिनेत्री "योगिता" के कदम को कितना जायज माना जाना चाहिए ? और कहाँ गई वो " नारी संघटन " जो हर बार नारी पर होते अत्याचार की ही बात करती है ? क्या इसे अश्लीलता भरा अंगप्रदशन कहा जाये या फिर अन्ना हजारे के नाम पर भारत की आन,बान,शान "तिरंगे " का अपमान..या फिर सस्ती पब्लिसिटी कहा जाये ..बात चाहे जो भी हो मग़र एक बात साफ़ होती है की " नारी संघटन "को "पूनम पांडे "के न्यूड होने पर या फिर "मन्दिरा बेदी "के न्यूड होने के साथ साथ अपने सरीर पर "ॐ" लगवाकर तस्वीरे खिंचवाने पर भी " अश्लीलता दिखाई नहीं दे रही है ?... क्या आज नारी संघटन अँधा हो गया है ? या फिर सिर्फ नाम का रहे गया है " नारी संघटन " ? " " भारत सरकार अश्लील विज्ञापन पर जब रोक लगा रही है उसी वक़्त भारत की नारी " जिस संस्कृति के लिए जानी जा रही है ..उस "लाज , शर्म " को सरेआम बाजार में लीलाम कर रही है | " ...नारी संघटन को नारी पर होते अत्याचार दिख रहे है मग़र नारी के द्वारा दिखाई जाती अश्लीलता नहीं ..आज अगर ऐसा ही कार्य किसी पुरुष ने किया होता तो ..नारी संघटन जमकर विरोध के साथ कड़ी कार्यवाही की मांग भी करती मग़र आज ..वही नारी संघटन "किसी नारी के द्वारा अपने खुले जिस्म पर "तिरंगा " लगाकर तस्वीरे खिंचवाने पर चुप है | " 
" बात यहाँ सिर्फ अंगप्रदशन की ही नहीं है मग़र आज "नारी संघटन" को फिर से सोचना पड़ेगा की " आखिर ऐसी क्या बात है ..जिसकी वजह से भारत की नारी अपना सच्चा गहेना " अपना जिस्म " दिखाने को राजी हो जाती है ? ...एक नारी के द्वारा ऐसी हरकत पर नारी संघटन को ठोस कदम उठाने ही चाहिए ..कही ऐसा ना हो की " नारी संघटन" की चुप्पी ये साबित ना कर दे की "आज की नारी खुद खिलौना बन गई है ? ..अब वक़्त आ गया है की ऐसे नारी संघटन फिर से एक बार सोचे की आखिर देश की इज्ज़त और नारी के सच्चे गहने कोकैसे बचाया जाये ? 
(www.eksachai.blogspot.com से साभार)

सोमवार, 22 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार का पाखण्ड पर्व



क्या यह कहना गलत होगा कि अन्ना द्वारा चालए जा रहे भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम (आन्दोलन) में वैचारिकता की कमी और भावनात्मकता की बहुलता है। स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद जितने भी छोटे-मोटे आन्दोलन हुए, उसपर हम नजरपात करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे आन्दोलन अपने मूल उद्देश्य से भटके हुए और असफल सिद्ध् हुए। जेपी आन्दोलन भी उनमें से एक बड़ा आन्दोलन रहा। जो बेनतीजा और बेजान साबित हुआ।  आखिर क्यों? इस पर गहन मंथन करने की जरूरत है। लेकिन हमारे देश में वैचारिक चरित्र की कमी है। जिसके चलते इस पर ईमानदार मंथन नहीं हो पाता। जेपी आन्दोलन से उपजे, कई नेताओं के चेहरे आज सामने है, उनमें से कई नेता ऐन-केन-प्रकारेण कुर्सी हासिल कर लोकप्रिय भी हुए, लेकिन लोकमान्य नहीं बन पाए 
आज अन्ना के साथ कई ऐसे चेहरे भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम में शामिल हैं, जिनका चरित्र और चाल लोकमान्य की शर्त को दूर-दूर तक भी नहीं छूता। 
देश में भारतीय दण्ड विधान के तहत कानून बने हुए हैं, जिन्हें ईमानदारी से लागू किया गया होता तो हत्या, बलात्कार, ठगी, राहजनी, अमानत में खयानत और तरह-तरह के अत्याचार और अपराध समाज और राष्ट्र के जीवन से कब के समाप्त हो गये होते। अब तो ऐसी स्थिति बन गयी है कि जितने महकमे बनते हैं, उतने ही भ्रष्टाचार के कारखानों में इजाफा होता जाता है। सूचना के अधिकार कानून बने, लागू हुए। जिन व्यक्तियों को इसकी जिम्मेदारी दी गयी, वे सबके सब सस्ते में बिकाऊ साबित हुए। क्या पत्रकार क्या अधिकारी! सभी वही ढाक के तीन पात!
अब, यहाँ एक अहम सवाल है कि क्या लोपपाल विधेयक के आ जाने से भ्रष्टाचार जादू की तरह व्यक्ति और समाज के चरित्र से समाप्त हो जायेगा? नहीं समाप्त होगा। इसके लिए तो हमें ऐसा कुछ ईजाद करने की जरूरत है, जो सुबह-सुबह उठते ही हमें सीरींज में डाल कर अपने शरीर में प्रवेश कराना होगा, ताकि दिन भर भ्रष्टाचार के कीडे़ जगे नहीं, सोये हुए रहे। तभी कुछ संभव है कि भ्रष्टाचार हमारे जीवन से समाप्त हो पाये। अन्यथा भ्रष्टाचार का पाखंडपर्व हम जीवन भर मनाते रहेंगे भ्रष्टाचार के साथ। और अन्ना की मुहिम में वैसे ही व्यक्ति और चरित्र अगुआ बना हुआ रहेगा, जो वेतन को न छूकर ऊपरी आमदनी से अपना सारा खर्च गर्व से चलाता है। और ऐसी मुहिम का प्रायोजक भी वही व्यक्ति होता है, जो सबसे पहले बैनर और झण्डा लेकर चौक-चौराहों पर देखा जाता है। 
आजादी के 65 वर्ष हो गये। लेकिन हमारे देश की असली तस्वीर क्या है? जिनके लिए योजना बनाई जाती है, उन्हें उसका लाभ न मिल कर ऊपर-ऊपर ही या नीचे-नीचे ही उनकी तिजोरी में चला जाता है, जो इस योजना को लागू करते हैं। नेता-कारपोरेट मीडिया-और भ्रष्ट अधिकारी का गठबंधन इस आजादी को लिल रहा है। जो आने वाले समय में और खतरनाक साबित होगा। तब कोई अन्ना कुछ नहीं कर पायेगा! 
अरुण कुमार झा
प्रधान सम्पादक

मंगलवार, 26 जुलाई 2011


सुबोध कांत सहाय बनाम संपादकवीर जी

डॉ0 सुनील कमल

पत्रकारिता यदि स्वस्थ्य हो तो समाज का माहौल भी स्वस्थ्य होगा। जिम्मेदार और  मुद्दे की पत्रकारिता ही समाज और राष्ट्र के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाती है।  और अपना चरित्रा भी उज्ज्वल बनाए रखती है। पत्रकारिता के इसी चरित्र-बल पर तो स्वतंत्रता पूर्व स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी की आधी जंग जीत ली थी।  तब पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी और आज व्यवसाय।जिसके कारण पत्रकारिता आज पूँजीपतियों का हथियार बन गयी है। या यों कहें पूंजीपतियों ने इसे ऐसा बना लिया है। पत्रकारिता अब पूंजीपतियों की बपौती बन कर रह गयी है और इसमें काम करने वाले तो हमारे बीच के ही लोग होते हैं, जो सिर्फ नौकरी करते हैं पूँजीपतियों के अखबारों में, और ये पूँजीपति के ये संपादक-प्रबंधक उनकी मजबूरी का फायदा अपने मालिक के पक्ष में उठाते हैं।  
आज पत्रकारिता दुर्भाग्यजनक स्थिति में पहुँच गयी है कि कॉरपोरेट मीडिया के संचालकगण पत्रकार-कामगरों का इस्तेमाल जैसे चाहते हैं, वैसे करते हैं। ऐसी स्थिति पैदा करने में नौकरी करने वाले पत्रकारों की भी  भूमिका कम नही है। और सरकार में बैठे स्वार्थी संबंधत अधिकारी के साथ-साथ भ्रष्ट नेताओं की भूमिका भी कमतर नहीं है।
आज कॉर्पोरेट मीडिया सरकार को गिराने और बनाने की ताकत हासिल कर लिया है। जो आने वाले समय के लिए भारी खतरा का संकेत देती है। फिर भी सरकार इस बात से जानबूझ कर आँखे मूँदे बैठी है। और इनके अखबारों द्वारा किये जा रहे सारे कुकर्मों को नजरअंदाज करते हुए सँबधित अधिकारियोँ के मीलीभगत से इन्हें सरकारी संरक्षण  दिया जा रहा है। कई बड़े कार्पोरेट अखबार आज कई शहर में फर्जी रूप से चल रहे हैं, इसकी खबर भी आ चुकी है। फिर भी उन्हें सरकारी विज्ञापन लाखों करोड़ो का दिया जाता है।  राँची शहर में भी फर्जी अखबार का प्रकाशन किया जा रहा है। उन्हें सरकारी विज्ञापन दिया जा रहा है। सरकार और सरकारी अफसर का भरपूर संरक्षण भी इन्हें मिल रहा है। ऐसे अखबार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और मानव की गरिमा को क्या समझेगा! चरित्रहनन की पत्रकारिता ही इनका धारदार हथियार बन कर रह गयी है, जिसके बल पर उनकी पूँजी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है। राँची के एक अखबार तो अपना प्रिन्टलाइन को इस प्रकार से छुपाता हुआ छापता है, जैसे कि कोई उसकी चोरी कही पकड़ न ले। वहीं अपने पंजीयन संख्या की जगह पंजीयन क्रमाँक आवेदित लिखता है, जो प्रेस एक्ट के विरूद्ध है, गैर कानूनी है। इस प्रकार के कोई प्रावधान नही है कि आप आवेदित रूप में अखबार का प्रकाशन जारी रखें, उपायुक्त और एसडीएम को गैरजिम्मेदारी के काम से फुर्सत ही नहीं कि इस प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण कानून की रक्षा के लिए समय निकाले। जिसका फायदा ये फर्जी अखबार उठाकर लाखों रूपये का सरकारी विज्ञापन अधिकारियों के पॉकेट गर्म करते हुए उठा रहा है। 
प्रसंगवश कहना पड़ रहा है कि पिछले दिनों दिल्ली में पूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता अशोक प्रधान द्वारा होटल ग्रैंड में फैशन शो का आयोजन किया गया था। इसमें केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय मुख्य अतिथि थे, उपलब्ध जानकारी के अनुसार जिस वक्त फैशन शो आयोजित किया जा रहा था, ठीक उसी वक्त मुम्बई में बम के धमाके हुए। इस घटना के बाद कार्पोरेट घराने के कुछ गैर जिम्मेदार पत्रकारों ने केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय को इस कार्यक्र में घेरते हुए पत्रकारिता का नया एंगल तलाशा और उन पर हमला बोल दिया, जैसे कि उनके ही कारण मुम्बई में आंतकी हमला हुआ हो। और तो और फैशन शो में रैंप पर कैटवाक करते हुए महिला मॉडल की अधनँगी टाँग एवं सुबोध कान्त सहाय को ठीक उसके करीब गोल घेरे में दिखाते हुए मुख्य पृष्ठ पर और प्रमुखता से उस तस्वीर को प्रकाशित कर कार्पोरेट मीडिया क्या साबित करना चाहते थे, यह किसी संवेदनशील जागरूक, जिम्मेदार लोगों को निश्चित रूप से असमंजस में डालने वाला हो सकता है। यहाँ कई पूर्वाग्रह से ग्रसित पाठक को यह लग सकता है कि हम सुबोध कांत सहाय का बचाव कर रहे हैं, जैसा कि दृष्टिपात के वेबसाइट एवं फैसबुक  पर इस समाचार के प्रकाशन के पश्चात कई पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया इसी आशय का दिया है। यहाँ हम यह कहना चाहते हैं कि इस गजह पर मेरे घोर विरोधी भी होता तो मैं उसका पक्ष ही लेता, क्यों कि इस समाचार से किसी खास व्यक्ति को जलिल करने जैसी बात हुई है।  जो मानव की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा ही लगता है। दूसरी और यहाँ याद दिलाने की जरूरत है कि उक्त फैशन शो का आयोजन एक पूर्व मंत्री ने किया था, तो क्या इस मामले में उन्हें इन अखबारों ने दोषी क्यों नहीं ठहराया? उनके बारे में किसी अखबार के संपादकवीर की ओर से एक लाइन की खबर चलाने की शऊर क्यो नहीं हुआ? यह तो एक इत्तेफाक था, जिसे कोई नहीं जानता था कि इसी समय यह सब होगा। इसमें कोई दोषी नहीं है। इसमें दोषी है तो सिर्फ और सिर्फ क्षुद्रता भरी पत्रकारिता का एंगल तलाशने वाला कारोपोरेट संवाददाता एवं संपादकवीर। 
ऐसी क्षुद्रता भरी पत्रकारिता से एक प्रश्न उभर कर सामने आता है कि अखबार के इतने महत्वपूर्ण स्थान का जिस प्रकार दुरूपयोग किया गया, इससे तो अखबार के साथ-साथ संपादक की क्षुद्र मानसिकता ही झलकती हैै। इतने महत्वपूर्ण जगह को यदि झारखण्ड के गाँव या शहर के गरीब-लाचार लोगों की लाचारगी के लिए किया जाता, तो कितने लाचार लोगों की जिन्दगी सँवर जाती, लेकिन नहीं, ये ऐसा नहीं कर सकते, क्योकि ये लोग तो पूंजीपतियों के लाचार नौकर हैं, जो सिर्फ अपना पेट भरने के लिए एक मशीन की तरह काम करते हैं। जिम्मेदार पत्रकारिता के महत्व को  ये क्या समझेंगे! ये तो घिनौने विज्ञापन को छाप कर समाज के संस्कार को बिगाड़ सकते हैं, अपत्तिजनक विज्ञापन में उन्हें खोट नजर नहीं आयेगी। इन्हें ऐसे विज्ञापन घिनौने नहीं लगते। उन्हें अपने गिरेवान में झाकने में शर्म आती दूसरे के गिरेवान में झाकने में आनन्द। इन्हें सेक्स पावर और लिंगवर्धक् जैसे विज्ञापन घिनौने नहीं लगते और पत्र-मित्रता के नाम पर हजारों किशोरों-नौजवानों को गुमराह करने वाले फ्रॉड विज्ञापन पर निगाहें नहीं जातीं। इन विज्ञापन को छापने में गर्व अनुभव करते हैं। ऐसे फ्रॉड विज्ञापन के प्रकाशन पर एक शब्द नहीं लिखेंगे। गर्व से प्रकाशित करेंगे, समाज भाँड़ में जाये, इनके पूंजीपति मालिक को पैसे तो मिलेंगे, उस काली कमाई से इनका भी पेट भरेगा, फिर क्यों उसमें ताक-झांक करने जायेंगे, ये संपादकवीर जी? संपादकवीर जी आप के अखबार में कई तकनीकी छेद हैं, आपको वह दिखाई देती क्यों नहीं? आप पाठक बनाने के बहाने लोगों को लालची बना रहे हैं घटिया गिफ्ट देकर। संपादकवीर जी इसमें आपको पत्रकारित का एंगल नजर नहीं आता। क्या अखबार का काम गिफ्ट बाँटना भी हो गया है। आप तो बाजार लगाते ही हैं। कभी फैशन शो का तो कभी कार बाजार, तो कभी .....आदि आदि! क्या यह पत्रकारिता के विरूद्ध  कर्म नहीं है? संपादकवीर जी!
संपादकवीर जी जनता को आप बता पायेंगे कि सुबोध कांत सहाय फैशन शो में आकर कौन सा गुनाह कर दिया था। आपको मालूम हो कि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे तो कैटवाक में हिस्सा भी लिया करती थीं। नामी-गिरामी राजनेता, क्रिकेटर, प्रसिद्ध खिलाड़ी अन्य ऐसे व्यक्तित्व फैशन शो में नियमित शिरकत करते रहे हैं। 
यह तो इत्तेफाक था कि ऐन वक्त पर ही मुम्बई में आंतकी धमाका हो गया। यह इत्तेफाक तो किसी के साथ भी हो सकता है... सुबोध कांत सहाय ने मुम्बई के आतंकी धमाके की घटना को न्योता तो नहीं दिया था। घटना के बाद उन्होंने सिर्फ नियति की बात कह कर अफसोस जाहिर की थी। उनके परिवार भी तो मुम्बई में ही था। संपादकवीर जी! यदि उस जगह पर आप होते तो क्या करते। आप यहाँ भी क्या करते हैं! सब जानता है। 


मुंडा सरकार ने झारखंड के पत्रकारों के बीच बांटी रेवड़ियां


30 में 26 चहेतों को दिया 50 हजार रु. के मीडिया फेलोशिप 

झारखंड सरकार ने 26 पत्रकारों को 50-50 हजार रुपये की मीडिया फेलोशिप की घोषणा कर दी है। मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने संवाददाता सम्मेलन में चयनित पत्रकारों की सूची जारी की। जनहित के मुद्दों पर शोध आधारित प्रकाशनों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विभाग के द्वारा शोध एवं अन्वेषण की योजना प्रारम्भ की गयी है। इसके लिए विभागीय समिति गठित कर अखबारों में विज्ञापन देकर प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई थी। गठित विभागीय समिति ने कुल 26 आवेदकों का चयन फेलोशिप प्रदान करने हेतु किया है। प्रत्येक फेलोशिप हेतु पचास हजार रुपये की राशि प्रदान की जानी है। बकौल चयन समिति के सदस्य डॉ.विष्णु राजगढिया,चयन समिति के पास कुल 30 आवेदन ही प्राप्त हुए थे।

चयन समिति में डा॰ रमेश शरण (स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र विभाग, रांची विश्वविद्यालय), श्री चंदन मिश्र (ब्यूरो प्रमुख, दैनिक हिन्दुस्तान), डा॰ विष्णु राजगढि़या (ब्यूरो चीफ, नई दुनिया), श्री विजय पाठक (स्थानीयसम्पादक, प्रभात खबर), श्री सुमन श्रीवास्तव (ब्यूरो प्रमुख, दी टेलीग्राफ), श्री अरविन्द मनोज कुमार सिंह (सहायक क्षेत्रीय निदेशक, इग्नू), श्री राजीव लोचन बख्शी (संयुक्त सचिव, सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग) तथा श्रीमती स्नेहलता एक्का (उप निदेशक, सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग) शामिल है।
मीडिया फेलोशिप हेतु चयनित पत्रकार एवं उनका शोध-विषय-
1. अनुपमा कुमारी- पंचायती राज और महिला सशक्तिकरण
2. आलोका- झारखण्ड में मनरेगा का महत्व
3. अनंत - हजारीबाग में लतिका का सामाजिक संघर्ष
4. योगेश्वर राम - पंचायत व्यवस्था में ग्राम सभा की भूमिका
5. आशिषी कुमार सिन्हा - बिरहोर समुदाय की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली
6. ओमप्रकाश पाठक - ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य अधिसंरचना
7. रूपक कुमार - झारखंड में जैव-विविधता और जीविकापार्जन
8. सुरेन्द्र लाल सोरेन - कचड़ा चुननेवाले बच्चों के बेहत्तर भविष्य की संभावन
9. सर्वजीत - झारखंड में सूचना का अधिकार
10. प्रशांत जयवर्द्धन - वन प्रबंधन और पारंपरिक नियम
11. नदीम अख्तर - झारखण्ड राज्य में कृषि में तकनीक का इस्तेमाल
12. महेश्वर सिंह छोटु - आदिम जनजाति पहाडि़या कल आज और काल
13. नौशाद आलम - झारखण्ड में समुदायिक वन प्रबंधन की प्रासंगिकता
14. संजय श्रीवास्तव - झारखण्ड के विकास में संसदीय राजनीति का योगदान
15. शैली खत्री - राँची में बच्चों के विकास की स्थिति ।
16. प्रशांत झा - तसर सिल्क उद्योग और इससे जुड़े लोगों की स्थिति
17. कुमार संजय - बच्चों के भोजन और पोषण का अधिकार
18. विकास कुमार सिन्हा - झारखण्ड के पर्यटन स्थलों की स्थिति व विकास।
19. तनवी झा - झारखंड में समुदाय आधरित स्वास्थ्य सेवा
20. अमित कुमार झा - नेशनल गेम्स आयोजन से झारखण्ड में खेल प्रतिभाओं का उदय।
21. चन्दो श्री ठाकुर - राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का सामुदायिक परिदृश्य
22. संजय कृष्ण - ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर महिला पलायन का असर
23. सलाउद्दीन- हजारीबाग में एड्स का विस्तार एवं नियंत्रण
24. शैलेश कुमार सिंह - स्वर्णिम झारखंड में नक्सलवाद का अंत
25. पंकज त्रिपाठी - राज्य में बिजली की स्थिति, समस्या और समाधान।
26. शक्तिधर पांडेय - लोक स्वास्थ्य और आंगनबाड़ी सेवाओं के सुदृढ़ीकरण में समुदाय की भूमिका।
बहरहाल, समिति द्वारा अनुसंशित जिन उम्मीदवारों को सरकार ने फेलोशिप प्रदान करने की घोषणा की है,उनका गहन अवलोकन करने पर यह साफ जाहिर होता है कि मुंडा सरकार ने झारखंड की पत्रकारिता के एक खास वर्ग के चहेतों के बीच मात्र रेवड़ियां बांटने का कार्य की है। वाकई में जिन पत्रकारों को इसका लाभ मिलनी चाहिए,उसे नहीं मिलने की परंपरा कायम रखते हुये पारदर्शिता नहीं बरती गई है। और यदि इसकी न्यायपूर्ण जांच की जाए तो सबकी कलई खुलनी तय है। चयन समिति में कई ऐसे लोग हैं,जिनसे पारदर्शिता की उम्मीद कदापि नहीं की जा सकती। वरिष्ठ पत्रकार रजत कुमार गुप्ता का कहना है कि इनके चयन का आधार सार्वजनिक होना चाहिए।

http://www.rajnama.com/2011/07/blog-post_1709.html